Tuesday, November 14, 2017

गजल एक भारती

गजल


हर रोज मरने के बाद ।
चंद रोज जिया तो क्या ।।

हर तरफ से ठुकरा देने के बाद ।
सबक ए जिंदगी लिया तो क्या ।।

राह अपनी वक्त निकल जाने के बाद ।
पकड़ी भी तो बचा क्या ।।

हुनर अपना दम निकल जाने के बाद ।
जमाने ने जाना तो क्या ।।

पूरी उम्र जमाने को लुटने के बाद ।
साथ ले गया तो क्या ।।

उम्र भर भविष्य को सोचने के बाद ।
कुछ ना मिला तो क्या ।।

लाखों दिलों को जीतने के बाद ।
भारती खाली गया तो क्या ।।

लेखक विरेन्द्र भारती
8561887634

Thursday, August 31, 2017

हुनर विरेन्द्र भारती


जिंदा कर तू अपने उस हुनर को ।
जो ले जाए तुझे शिखर को ।।

जिंदा कर तू अपने उस हुनर को ।
जो झुकने ना दे तेरे सिर को ।।

अरे मर्द है तो मर्द सी बात कर ।
यूँ प्यार व्यार के चक्कर में जिंदगी बर्बाद ना कर ।।

जिंदा कर तू अपने उस हुनर को ।
जो पहचान दिलाए तेरे सफर को ।।

जिंदा कर तू अपने उस हुनर को ।
जो संवारे तेरे व्यक्तित्व  को ।।

अरे जिंदा है तो मुर्दो सी बात ना कर ।
दूसरों के लिए भी कुछ  करामात कर ।।

जिंदा कर तू अपने  उस हुनर को ।
जो बनाएं नव तेरे जीवन  को  ।।

जिंदा कर तू खुद को ।
जिंदा कर तू अपने हुनर को । जिंदा कर ।।

लेखक विरेन्द्र  भारती 
8561887634

Saturday, August 26, 2017

रे नर वो किसान है (किसान)


कर - कर मेहनत थक गया ।
रे नर वो यूँही  पक गया ।।

सरकार ने ली नहीं सुध ।
और वो धुप में सक गया ।।

मेहनत उसकी कितनी है ।
और मजदूरी कितनी सी ।।

वो फिर भी कभी डिगा नहीं ।
वो फिर भी कभी मिटा नहीं ।।

रे नर वो किसान है ।
उससे देश का मान है ।।

वो जो नहीं तो बंजर सारा जहाँन है ।
रे नर वो किसान है ।।

वो पालता सबका पेट ,करता ना गुणगान है ।
रे नर वो किसान है, रे नर वो किसान है ।।

वो गर्व है इस देश का ।
वो सर्व है इस देश का ।।

सब सोचों उसका भला , जो पोषित कर रहा सारा जहाँन है ।
रे नर वो किसान है, रे नर वो किसान है ।।

करता निवेदन भारती एक आयोग उसको भी ला दों ।
ओ सरकार चलाने वालों उसका भी ओदा बढ़ा दो ।।

है वो भी पिता तुल्य रे नर ।
क्योंकि वो करता काम महान है ।।

रे नर वो किसान है ।
 रे नर वो किसान है ।।
  
उसके ही दम पे जीवित है हस्तियाँ ।
बिन उसके कैसे टिकती बस्तियाँ ।।

रे मानव वो महान है ।
वो जो किसान है ; वो जो किसान है ।।

लेखक  विरेन्द्र  भारती 
8561887634

कसूर

कसूर
अक्सर सोचता हूँ क्या कसूर हैं उस गरीब बच्चे का जो पढ़ नहीं पाता
क्या कसूर हैं उसका जो वो सड़क किनारे हैं सोता
क्या कसूर हैं उसका जो वो दो वक़्त की रोटी नहीं खा पाता
आखिर क्या कसूर हैं उसका जो वो अपना तन भी नहीं ढक पाता
आखिर क्या कसूर हैं उसका जो वो हँस नहीं पाता
आखिर क्या कसूर हैं उसका जो वो ताने सुनता जाता
आखिर क्या कसूर हैं उसका जो वो दिन रात चलता जाता
आखिर क्या कसूर हैं उसका जो वो गन्दगी मैं हैं रहता
आखिर क्यों वो कई दफा रोता हैं
क्योंकि
अक्सर सोचता हैं वो भी
मैं भी पढ़ने जाऊँ
मैं भी अपने घर मैं सोऊँ
मुझे भी अच्छा खाना मिले
पहनने को अच्छे कपडे मिले
मैं भी खेलू दोस्त बनाऊँ
उनके साथ मस्ती करुँ हँसू
कोई मुझे गन्दी गाली ना  दे
छोटी नजरो से ना देखें
मैं भी आराम करू सोऊं
एक अच्छी जगह पर रहूँ
आखिर क्या कसूर हैं मेरा ?

क्या कसूर  ?
कोई बतायें तो
क्या गरीब होना गुनाह हैं ?
या गरीब के  घर मैं पैदा होना ?
और क्यों ?
  मुझे  भी पढ़ना हैं
वो सब करना हैं जो दूसरे   करते हैं
 आखिर क्यों नहीं कर सकता मैं ये सब
कोई  बताये मुझे कसूर मेरा ?

लेलेखक विरेन्द्र  भारती
8561887634

Sunday, June 4, 2017

तेरा दर्द

तेरा दर्द

तु मेरी जिंदगी के हर आखरी पन्ने पर है 
मैंने मौत भी माँगी तो तेरी आरजू से माँगी है 

तेरी चाहत मे कहीं मेरा दम निकल ना जाए 
अब तो तु आजा कहीं मेरी साँसे छिनली ना जाए 

हर वक़्त तेरे खयालो मे मैं खोया हुआ था 
मुझे नहीं पता मैं कब सोया हुआ था 

नींद कैसी होती है मैं ये भुल गया हूँ 
जबसे तु रूठी है मैं टूट गया हूँ 

अब तो तेरी ख़बर भी दूसरों से आती हैं 
जबसे तु गयी है  सिर्फ खयालो में आती हैं 
 सिर्फ खयालो में आती हैं 

लेख़क विरेन्द्र भारती 
मो. 8561887634 
 ई मेल. virendra.bharti@yahoo.in
                                                        

Tuesday, May 30, 2017

रिश्ता

रिश्ता कच्चे धागो की पतंगों की तरह होता है,
ना जाने कब किस्से बन जाता है
ना जाने कब टूट के अलग हो जाता  है | 

Sunday, May 28, 2017

वो अजनबी

बहुत  दिनों  के  बाद  आज  फिर  सफर  का  मजा आया ।
आज  फिर  सफर  में   एक हमसफर  ऐसा  पाया ।
जिसकी  तारीफ  में  बहुत  कुछ  लिखने का  दिल  किया ।
पता नहीं  क्यों  उससे  बार- बार मिलने  का  दिल  किया ।।

वो अजनबी  बस  कुछ  पल  में  ही  दिल  में  घर  कर गई ।
वो  मुझे  कोटा  से  जयपुर  के  सफर  मिल  गई ।
उसे  देखकर  मेरी  गाड़ी  लोकल  बस  में  चढ़  गई।
फिर  क्या था  गाड़ी  सफर  पर  चल  गई।।

मैंने  उसको  देखा  उसने  मुझे  देखा
मैंने  उसको  देखा  उसने  मुझे  देखा
फिर वो मुस्कुराई  फिर  मैं  मुस्कुराया
और  फिर  नैन  मटक्का  हो  गया 

पता  नहीं  मेरी  कौनसी  आदत  उसे  पसंद  आ  गई ।
वो  अपनी  माँ  के  पास  से  उठकर  मेरे  पास  आ  गई।
शायद  जो  गुफ्तगू  मेरे  दिल  में  थी  वो  उसके  में  भी  चल गई 
पता  नहीं  क्या  था  वो  जो वो  ऐसा  कर  गई 

वो  चेहरा 
वो  आँखे 
वो मुस्कान 
वो शरारत

 बैठ के  पास  मेरे  वो  कयामत  ढ़ा  रहीं  थी।
वो खुद  भी  जल रहीं  थी  मुझे  भी  जला  रहीं  थी।।

ना  वो  खुद  को  रोक  पा  रहीं  थी ना  मै
जबकि  दोनों  जानते  थे  सफर  खत्म  हो  रहा है ।।

खत्म हो  गया  वो  सफर  देवली  ही
वो  उतर के  अपने रास्ते चल दि  और  मैं  अपने

एक दफा  फिर  लौट  कर  आई  वो  मिलने  मुझसे
उसने कहा  चलो  और मै  उसके  साथ  चल  दिया
फिर  ना  वो  बोल  पाई  ना  मैं

थोड़ी देर  युं  ही  एक  दूसरे को  देखते  रहे ।
फिर  वो  अपने  रास्ते  चल  दी  और  मैं  अपने






गजल एक भारती