Monday, October 24, 2016

बिन चाह राह कैसी विरेन्द्र भारती

जिन्दगी के न जाने कौनसे पडाव मैं हुँ,
जिन्दगी के न जाने कौनसे बहाव मैं हुँ ।।

बनाना है मुझे जिन्दगी मैं एक मुकाम,
मैं किसी बहाव मैं हुँ या बना रहा हुँ मुकाम।।

जिन्दगी बहुत कुछ सीखा गई,
या मुझे बिका गई ।
मुझे नहीं मालूम कुछ इसके बारे मैं,
मैं जानता हुँ बस इतना चल रहा हुँ राहों मैं ।।

मंजिल का मेरी मुझे पता है,
लेकिन वहाँ कोई सीधी राह नही जाती।।

सखा बहुत है मेरे मगर कोई साथ नहीं आता,
कहते सब है; अपनी - अपनी मुझे।
लेकिन निभाने कोई साथ नहीं आता।।

मैं आज वक्त और हालात के उस जाल मैं फसल गया हुँ,
जहाँ से निकल कर कोई राह नहीं जाती।।

By virendra bharti
8561887634

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