Sunday, November 13, 2016

घरौंदो में बचपन विरेन्द्र भारती

मैंने देखा है, खेतौ में उन लहलहाती फसलो को।
मगर मैंने देखा है, घरौंदो में पलते बच्चो को ।।

क्या है जिंदगी,  वो नहीं जानते।
जिंदगी को अपना,  वो नहीं मानते ।।

दो वक्त की रोटी, बड़ी मुश्किल से नसीब होती है जिनको ।
बिस्तरों का सुख क्या होता है, वो नहीं जानते ।।

नंगे पाँव रहते है जो, कंकरो की चुभन को नहीं जानते ।।

अक्सर देखता हुँ, उनको में मुस्कुराते ।
शिकस्त को देखा ना कभी, उनके चेहरे पे आते ।।

अक्सर देखा है मैंने, उनको दुसरो के आगे हाथ फैलाते ।
फैलाकर हाथ वो, अपना पेट है पालते ।।

क्या होती है लाज शर्म, वो नही जानते ।
पापी पेट का सवाल है, बस इतना ही मानते ।।

भारती कोई जौहरी नहीं,  जो सवार सके सबका जीवन ।
मगर संवारेगा, कुछ का बचपन ।।

 Mad writer virendra bharti
8561887634


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गजल एक भारती